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गीता प्रेस, गोरखपुर >> आशा की नयी किरणें

आशा की नयी किरणें

रामचरण महेन्द्र

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :214
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1019
आईएसबीएन :81-293-0208-x

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प्रस्तुत है आशा की नयी किरणें...

पुरुषार्थ कीजिये !


मनुष्प संसारमें सबसे अधिक गुण, समृद्धियाँ शक्तियाँ लेकर अवतरित हुआ है। शारीरिक दृष्टिसे हीन होनेपर भी परमेश्वरने उसके मस्तिष्कमें ऐसी-ऐसी गुप्त आश्चर्यजनक शक्तियाँ प्रदान की हैं, जिनके बलसे वह हिंस्र पशुओंपर भी राज्य करता है, दुष्कर कृत्योंसे भयभीत नहीं होता, आपदा और कठिनाईमें भी वेगसे आगे बढ़ता है।

मनुष्यका पुरुषार्थ उसके प्रत्येक अंगमें कूट-कूटकर भरा गया है। मनुष्यकी सामर्थ्य ऐसी है कि वह अकेला समयके प्रवाह और गतिको मोड़ सकता है। धन, दौलत, मान, ऐश्वर्य सब पुरुषार्थद्वारा प्राप्त हो सकते हैं।

अपने गुप्त मनसे पुरुषार्थका गुप्त सामर्थ्य निकालिये। वह आपके मस्तिष्क में है। जबतक आप विचारपूर्वक इस अन्तःस्थित वृत्तिको बाहर नहीं निकालते तबतक आप भेड़-बकरी बने रहेंगे। जब आप इस शक्तिको अपने कर्मोंसे बाहर निकालेंगे, तब प्रभावशाली बन सकेंगे।

संसारके चमत्कार कहांसे प्रकट हुए? संसारके बाहरसे नहीं आये और ब्रह्मशक्ति आकर उन्हें प्रस्तुत नहीं कर गयी है। उनका जन्म मनुष्यके भीतरसे हुआ था। संसारकी सभी शक्तियाँ सभी गुण, सभी तत्त्व, सभी चमत्कार मनुष्यके मस्तिष्कमेंसे निकले हैं। उद्गमस्थान हमारा अन्तःकरण ही है।

संसारमें छोटे-मोटे लोगोंके तुम क्यों गुलाम बनते हो? क्यों मिमियाते, झींकते या बड़बड़ाते हो? दुःख, चिन्ता और क्लेशोंसे क्यों विचलित हो उठते हो? नहीं, मनुष्यके लिये इन सबसे घबरानेकी कोई आवश्यकता नहीं। वह तो अचल, दृढ़, शक्तिशाली और महाप्रतापी है।

इसी क्षणसे अपना दृष्टिकोण बदल दीजिये। अपने-आपको महाप्रतापी, पुरुषार्थी पुरुष मानना शुरू कर दीजिये। तत्पर हो जाइये। सावधानीसे अपनी कमजोरी और कायरता छोड़ दीजिये। बल और शक्तिके विचारोंसे आपका सुषुप्त अंश जाग्रत् हो उठेगा।

सामर्थ्य और शक्ति आपके अंदर है। बलका केन्द्र आपका मस्तिष्क है। वह नित्य, स्थायी और निर्विकार है, फिर किस वस्तुके अभावको महसूस करते हैं? किस शक्तिको बाहर ढूँढ़ते फिरते हैं? किसका सहारा ताकते हैं? अपनी ही शक्तिसे आपको उठना और उन्नति करनी है। उसीसे प्रभावशाली व्यक्तित्व बनाना है। आपको किसी भी बाहरी वस्तुकी आवश्यकता नहीं है। आपके पास पुरुषार्थका गुप्त खजाना है। उसे खोलकर काममें लाइये।

मनुष्यको संसारमें महत्ता प्रदान करनेवाला पुरुषार्थ ही है। उसीकी मात्रासे एक साधारण तथा महान् व्यक्तिमें अन्तर है। पुरुषार्थकी वृद्धिपर ही मनुष्यकी उन्नति निर्भर है। सामर्थ्यसम्पन्न मनुष्य ही सुख, सम्पत्ति, यश, कीर्ति एवं शान्ति प्राप्त कर सकता है।

पुरुषार्थका निर्माण कई मानसिक तत्त्वोंके सम्मिश्रणसे होता है। (१) साहस-इन सबमें मुख्य है। नये कार्योंमें तथा कठिनाईके समय हमें कोई भी बाह्य शक्ति आश्रय प्रदान नहीं कर सकती। साहसी वह कार्य कर दिखाता है जिसे बलवान् भी नहीं कर पाते। साहसका सम्बन्ध मनुष्यके अन्तःस्थित निर्भयताकी भावनासे है। उसीसे साहसकी वृद्धि होती है। (२) दृढ़ता-दूसरा तत्त्व है जो पुरुषार्थ प्रदान करता है। दृढ़ व्यक्ति अपने कार्योंमें खरा और पूरा होता है। वह एकाग्र होकर अपने कर्तव्यपर डटा रहता है। (३) महानताकी महत्त्वाकांक्षा पुरुषार्थीको नवीन उत्तरदायित्व-जिम्मेदारी अपने ऊपर लेनेका निमन्त्रण देती है और मुसीबतमें धैर्य एवं आश्वासन प्रदान करती है। स्वेट मार्डन साहबके अनुसार बड़प्पनकी भावना रखनेसे हमारी आत्माकी सर्वोत्कृष्ट शक्तियोंका विकास होता है, वे जाग्रत् हो जाती है। इस गुणके बलपर पुरुषार्थी जिस दिशामें बढ़ता है, उसीमें ख्याति प्राप्त करता चलता है। वह अपने महत्त्वको समझता है और अपनी सभी शक्तियोंके द्वारा सदा आत्ममहत्त्वको बढ़ाता रहता है।

धीमन्तो वन्द्यचरिता मन्यन्ते पौरुषं महत्।
अशक्ताः पौरुषं कर्तुं क्लीबा दैवमुपासते।।

अर्थात् 'वन्दनीय चरित्रवाले बुद्धिमान् जन पुरुषार्थको ही प्रधान मानते हैं और जो नपुंसक एवं पुरुषार्थहीन जन है, वे भाग्यकी ही उपासना करते हैं।'

और भी कहते है-

उद्यमेन हि सिद्धय्न्ति कार्याणि न मनोरथैः।
नहि सुप्तस्य सिंहस्थ प्रविशन्ति मुखे मृगाः।।

अर्थात् 'उद्यम अथवा पुरुषार्थसे सम्पूर्ण कार्य सफल होते हैं मनोरथसे नहीं; क्योंकि सोते हुए सिंहके मुखमें मृग प्रवेश नहीं करते।' इससे सिद्ध होता है कि पुरुषार्थ श्रेष्ठ है।

गोस्वामी तुलसीदासजी अपने रामचरितमानसमें लिखते हैं-

दैव दैव आलसी पुकारा।

अर्थात् भाग्यको पुरुषार्थहीन लोग पुकारा करते हैं।

भगीरथके पिताने गंगाजीको लानेका बहुत प्रयत्न किया; किंतु वे सफल न हुए। उनके पुत्र भगीरथ भाग्यपर निर्भर न रहते हुए पुरुषार्थद्वारा पतितपावनी गंगाजीको अपने पितरोंको तारनेके लिये लानेमें समर्थ हुए। इससे सिद्ध होता है कि पुरुषार्थसे सब कुछ सिद्ध होता है।

तू स्वयं प्रकाश है

तू स्वयं आनन्द है,

तू स्वयंदृष्ट, सर्वपरिपूर्ण है,

तू पूर्ण और स्वतन्त्र है,

शिवानन्द कहते है-

मृत्यु तुझे छू नहीं सकती,

तू देश, काल, वस्तुसे अतीत है;

कह चिदानन्दरूपं शिवोऽहम् शिवोऽहम्।

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तू शरीरसे भिन्न है

हे राम! तू अमर आत्मा है,

सर्वव्यापक, अक्षर, अमर है,

यह शरीर नारियलकी खालके सदृश है,

नारंगीके छिल्केकी नाईं है।

तू तीनों शरीरोंसे भिन्न है,

तू पंचकोषोंसे भिन्न है,

तू तीनों अवस्थाओंका साक्षी है,

तू बुद्धिका साक्षी है,

नेति-नेति साधनाका अभ्यास करो,

अपवाद युक्तिके सहारे

उपाधियोंका परित्याग करो,

सार तत्त्वको प्राप्त करो।

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    अनुक्रम

  1. अपने-आपको हीन समझना एक भयंकर भूल
  2. दुर्बलता एक पाप है
  3. आप और आपका संसार
  4. अपने वास्तविक स्वरूपको समझिये
  5. तुम अकेले हो, पर शक्तिहीन नहीं!
  6. कथनी और करनी?
  7. शक्तिका हास क्यों होता है?
  8. उन्नतिमें बाधक कौन?
  9. अभावोंकी अद्भुत प्रतिक्रिया
  10. इसका क्या कारण है?
  11. अभावोंको चुनौती दीजिये
  12. आपके अभाव और अधूरापन
  13. आपकी संचित शक्तियां
  14. शक्तियोंका दुरुपयोग मत कीजिये
  15. महानताके बीज
  16. पुरुषार्थ कीजिये !
  17. आलस्य न करना ही अमृत पद है
  18. विषम परिस्थितियोंमें भी आगे बढ़िये
  19. प्रतिकूलतासे घबराइये नहीं !
  20. दूसरों का सहारा एक मृगतृष्णा
  21. क्या आत्मबलकी वृद्धि सम्मव है?
  22. मनकी दुर्बलता-कारण और निवारण
  23. गुप्त शक्तियोंको विकसित करनेके साधन
  24. हमें क्या इष्ट है ?
  25. बुद्धिका यथार्थ स्वरूप
  26. चित्तकी शाखा-प्रशाखाएँ
  27. पतञ्जलिके अनुसार चित्तवृत्तियाँ
  28. स्वाध्यायमें सहायक हमारी ग्राहक-शक्ति
  29. आपकी अद्भुत स्मरणशक्ति
  30. लक्ष्मीजी आती हैं
  31. लक्ष्मीजी कहां रहती हैं
  32. इन्द्रकृतं श्रीमहालक्ष्मष्टकं स्तोत्रम्
  33. लक्ष्मीजी कहां नहीं रहतीं
  34. लक्ष्मी के दुरुपयोग में दोष
  35. समृद्धि के पथपर
  36. आर्थिक सफलता के मानसिक संकेत
  37. 'किंतु' और 'परंतु'
  38. हिचकिचाहट
  39. निर्णय-शक्तिकी वृद्धिके उपाय
  40. आपके वशकी बात
  41. जीवन-पराग
  42. मध्य मार्ग ही श्रेष्ठतम
  43. सौन्दर्यकी शक्ति प्राप्त करें
  44. जीवनमें सौन्दर्यको प्रविष्ट कीजिये
  45. सफाई, सुव्यवस्था और सौन्दर्य
  46. आत्मग्लानि और उसे दूर करनेके उपाय
  47. जीवनकी कला
  48. जीवनमें रस लें
  49. बन्धनोंसे मुक्त समझें
  50. आवश्यक-अनावश्यकका भेद करना सीखें
  51. समृद्धि अथवा निर्धनताका मूल केन्द्र-हमारी आदतें!
  52. स्वभाव कैसे बदले?
  53. शक्तियोंको खोलनेका मार्ग
  54. बहम, शंका, संदेह
  55. संशय करनेवालेको सुख प्राप्त नहीं हो सकता
  56. मानव-जीवन कर्मक्षेत्र ही है
  57. सक्रिय जीवन व्यतीत कीजिये
  58. अक्षय यौवनका आनन्द लीजिये
  59. चलते रहो !
  60. व्यस्त रहा कीजिये
  61. छोटी-छोटी बातोंके लिये चिन्तित न रहें
  62. कल्पित भय व्यर्थ हैं
  63. अनिवारणीयसे संतुष्ट रहनेका प्रयत्न कीजिये
  64. मानसिक संतुलन धारण कीजिये
  65. दुर्भावना तथा सद्धावना
  66. मानसिक द्वन्द्वोंसे मुक्त रहिये
  67. प्रतिस्पर्धाकी भावनासे हानि
  68. जीवन की भूलें
  69. अपने-आपका स्वामी बनकर रहिये !
  70. ईश्वरीय शक्तिकी जड़ आपके अंदर है
  71. शक्तियोंका निरन्तर उपयोग कीजिये
  72. ग्रहण-शक्ति बढ़ाते चलिये
  73. शक्ति, सामर्थ्य और सफलता
  74. अमूल्य वचन

विनामूल्य पूर्वावलोकन

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